जानिए, दुर्गा कुंड मंदिर वाराणसी का इतिहास और रहस्य

दुर्गा कुंड मंदिर वाराणसी (Durga Kund Mandir Varanasi): दुर्गा कुंड मंदिर वाराणसी के दिव्य और प्राचीन मंदिरों में से एक है। यह मंदिर देवी दुर्गा को समर्पित है। नवरात्रि में इस मंदिर का महत्व और बढ़ जाता है। शारदीय नवरात्रि के चौथे दिन मां को कुष्मांडा माता के रूप में पूजा जाता है।

(Durga Kund Mandir Varanasi) दुर्गा कुंड मंदिर वाराणसी

दुर्गा कुंड मंदिर वाराणसी
दुर्गा मंदिर वाराणसी

इस मंदिर को दुर्गा कुंड और लाल मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। इस भव्य लाल पत्थर के मंदिर में, मंदिर के एक तरफ “दुर्गा कुंड” है। इस मंदिर का उल्लेख “काशी खंड” में भी मिलता है। यह मंदिर वाराणसी कैंट से लगभग 5 किमी दूर है।

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दुर्गा मंदिर का इतिहास और रहस्य

ऐसा माना जाता है कि शुंभ और निशुंभ राक्षसों का वध करने के बाद मां दुर्गा ने यहां विश्राम किया था। कहा जाता है कि यहां आदि शक्ति के रूप में माता का वास होता है और यह मंदिर प्राचीन काल से है।

पौराणिक मान्यता के अनुसार जहां मां स्वयं प्रकट होती है वहां मूर्ति स्थापित नहीं होती है। ऐसे मंदिरों में केवल प्रतीक की पूजा की जाती है। दुर्गा मंदिर भी इसी श्रेणी में आता है। यहां माता के मुख और चरण पादुका की पूजा की जाती है। काशी का दुर्गा मंदिर बीसा यंत्र पर आधारित है। बीसा यंत्र का अर्थ है बीस कोणों की यांत्रिक संरचना जिस पर मंदिर की आधारशिला रखी हुयी है। इस मंदिर में देवी दुर्गा ‘यंत्र’ रूप में विराजमान हैं।

दुर्गा मंदिर का निर्माण 18वीं शताब्दी में बंगाल की रानी भवानी ने करवाया था। यह मंदिर उत्तर भारतीय नागर शैली की वास्तुकला में लाल पत्थरों से बनाया गया था। उस समय मंदिर के निर्माण में करीब 50 हजार रुपये की लागत आई थी। देवी दुर्गा के केंद्रीय प्रतीक के रंगों से मेल खाने के लिए मंदिर को गेरू से लाल रंग में रंगा गया है। दुर्गा मंदिर के पीछे देवी अन्नपूर्णा और गणेश का मंदिर है।

मंदिर के अंदर एक अलग तरह की सकारात्मक ऊर्जा का अनुभव होता है। दुर्गा मंदिर में प्रवेश के लिए दो द्वार हैं। मुख्य द्वार मंदिर के मुख्य परिसर के सामने है और दूसरा द्वार जो छोटा है वह मंदिर के दाहिनी ओर है। दुर्गा मंदिर में बाबा भैरोनाथ, लक्ष्मीजी, सरस्वतीजी, हनुमानजी और माता काली के मंदिर भी हैं। ऐसा माना जाता है कि माता दुर्गा के दर्शन के बाद यहां के पुजारी के मंदिर में दर्शन करना अनिवार्य है। तभी मां की पूजा पूरी होती है।

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कहानी कुक्कुटेश्वर महादेव / पुजारी के मंदिर की

मंदिर से जुड़ी एक कहानी इसकी विशिष्टता को प्रतिपादित करती है। घटना अतीत की है, एक बार काशी क्षेत्र के कुछ लुटेरों ने इस मंदिर में देवी दुर्गा के दर्शन करते हुए यह संकल्प लिया कि यदि वे जिस काम में जा रहे हैं, उसमें सफल हुए, तो वे मानव बलि देंगे माता आदि शक्ति को। मां की कृपा से उन्हें अपने काम में सफलता मिली और वे मंदिर आए और एक ऐसे व्यक्ति को खोजने की कोशिश करने लगे, जिसके कोई दाग न हो क्योंकि बलिदान के लिए वैसा व्यक्ति ही उपयुक्त होता है।

तब केवल मंदिर के पुजारी ही बलि के लिए उन लोगो को उपयुक्त दिखें। पुजारी से यह कहते हुए, उनलोगो ने उन्हें बलि के लिए पकड़ लिया तो पुजारी ने कहा – रुको, मैं माता रानी की पूजा कर लूँ, फिर आप लोग मेरी बलि माँ को चढ़ा देना। उसके बाद लुटेरों ने पुजारी की बलि दी, तुरंत मां प्रकट हुईं और पुजारी को पुनर्जीवित किया और एक वरदान मांगने के लिए कहा। तब पुजारी ने मां से कहा कि उसे जीवन नहीं, उसके चरणों में चीर विश्राम चाहिए।

पुजारी की भक्ति भावना से अहलादित माँ ने वरदान दिया कि उनके दर्शन के बाद जो कोई उस पुजारी का दर्शन नहीं करेगा, उसकी पूजा फलदायी नहीं होगी। थोड़ी देर बाद पुजारी ने उसी मंदिर प्रांगण में समाधि ली, जिन्हे आज कुक्कुटेश्वर महादेव कहा जाता है।

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दंतकथा दुर्गाकुंड की

ऐसा कहा जाता है कि काशी के राजा सुबाहू ने अपनी बेटी के विवाह के लिए स्वयंवर की घोषणा की थी। स्वयंवर से पहले सुबाहू की बेटी ने अपना विवाह राजकुमार सुदर्शन के साथ सपने में देखा । राजकुमारी ने यह बात अपने पिता राजा सुबाहू को बताई।

जब राजा काशी ने स्वयंवर में आए राजाओं और राजकुमारों को यह बताया, तो सभी राजा, राजकुमार सुदर्शन के खिलाफ हो गए और सुदर्शन को युद्ध की चुनौती दी। राजकुमार ने युद्ध से पहले देवी भगवती की पूजा की और उनसे जीत के लिए आशीर्वाद मांगा। कहा जाता है कि युद्ध के दौरान मां भगवती ने राजकुमार के सभी विरोधियों का वध किया था। युद्ध में इतना खून-खराबा हुआ कि खून का एक कुंड बन गया, जो दुर्गाकुंड के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसके बाद राजकुमार सुदर्शन का विवाह राजकुमारी से हुआ।

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उत्सव और औपचारिक समारोह

लोग यहां मुंडन आदि शुभ कार्यों में मां के दर्शन करने आते हैं। मंदिर के अंदर एक हवन कुंड है, जहां प्रतिदिन हवन किया जाता है। कुछ लोग यहां तंत्र साधना और तंत्र पूजा भी करते हैं।

विशेष पूजा का आयोजन विशेष रूप से दुर्गा पूजा और नवरात्रि के त्योहार पर किया जाता है।

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