वास्तु शास्त्र का मूल क्या है? जाने दिशाएं ही है वास्तु का आधार

वास्तु शास्त्र का मूल क्या है (Vastu Shastra Ka Mool Kya Hai): मुख्य द्वार का निर्माण किस दिशा में हो, गृह स्वामी का शयनकक्ष कहां हो, इन सभी बातों की जानकारी वास्तुशास्त्र में है। लेकिन जिन दिशाओं की बात वास्तुशास्त्र करता है, क्या आप उन दिशाओं के बारे में जानते हैं? आईये उन दिशाओं के बारे में जानकारी बढ़ायें –

वास्तु शास्त्र का मूल क्या है (Vastu Shastra Ka Mool Kya Hai)

वास्तु शास्त्र का मूल क्या है
Vastu Shastra Ka Mool Kya Hai

वास्तुशास्त्र में दिशाओं और उनके कोणों का विशेष महत्व है। शायद यही वजह है कि गृह निर्माण के समय दिशाओं का खास ख्याल रखा जाता है। यही नहीं आंतरिक साज-सज्जा में भी इनका ध्यान रखा जाता है। 

वास्तु शास्त्र के अनुसार दिशाओं का ज्ञान

1. उत्तर दिशा 

उत्तर दिशा के अधिष्ठित देवता कुबेर हैं, जो धन और समृद्धि के द्योतक हैं। ज्योतिष के अनुसार बुध ग्रह उत्तर दिशा के स्वामी हैं। उत्तर दिशा को मातृ स्थान भी कहा गया है। इस दिशा में स्थान खाली रखना या कच्ची भूमि छोड़ना धन और समृद्धि का कारक होता है। 

2. पूर्व दिशा 

पूर्व दिशा के देवता इंद्र हैं। आत्मा के कारक और सृष्टि को प्रकाशमय बनाने वाले सूर्य का उदय भी इसी दिशा से होता है। इस दिशा को पितृस्थान का प्रतीक माना गया है। इसलिए इस दिशा में कोई रुकावट नहीं होनी चाहिए। 

क्योंकि इस दिशा से घर में सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह होता है। यही नहीं पूर्व दिशा में खुला स्थान परिवार के मुखिया की लंबी उम्र का प्रतीक भी है। 

3. पश्चिम दिशा 

वास्तुशास्त्र के अनुसार, वरुण पश्चिम दिशा के देवता है और ज्योतिष में शनिदेव पश्चिम दिशा के स्वामी माने गए हैं। यह दिशा प्रसिद्धि, भाग्य और ख्याति का प्रतीक है। 

4. दक्षिण दिशा 

दक्षिण दिशा को यम का प्रतिक माना गया है। इस दिशा में वास्तु के नियमानुसार, निर्माण करने से सुख, सम्पन्नता और समृद्धि की प्राप्ति होती है। 

जहां दो दिशाएं मिलती हैं, वह कोण बेहद महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि वह दोनों दिशाओं से आने वाली शक्तियों और ऊर्जाओं को मिला देता है। इसलिए वास्तुशास्त्र में इन कोणों का भी विशेष महत्व बताया गया है। 

5. ईशान कोण 

पूर्व और उत्तर दिशाए जहां पर मिलती है उस स्थान को ईशान कोण कहते हैं। यह दो दिशाओं का सर्वोत्तम मिलन स्थान है। यह स्थान भगवान शिव और जल का स्थान भी माना गया है। ईशान को सदैव स्वच्छ और शुद्ध रखना चाहिए।

इस स्थान पर जलीय स्रोतों जैसे कुआँ, बोरिंग वगैरह की व्यवस्था शुभ होती है। यही नहीं पूजा स्थान के लिए भी यह स्थान अच्छा होता है। इस स्थान पर कूड़ा करकट रखना, स्टोर, टॉयलेट वगैरह बनाना वर्जित है। 

6. आग्नेय कोण 

दक्षिण और पूर्व के मध्य का स्थान आग्नेय कोण होता है। यह अग्नि देवता का प्रमुख स्थान है इसलिए रसोई या अग्नि संबंधी चीजें यहां रखना वास्तु अनुकूल माना गया है। शुक्र ग्रह इस दिशा के स्वामी हैं। आग्नेय का वास्तुसम्मत होना घर में रहने वाले लोगों के स्वास्थ्य के लिए जरूरी है। 

7. नैऋर्त्य कोण 

दक्षिण और पश्चिम दिशा के मध्य के स्थान को नैऋर्त्य दिशा का नाम दिया गया है। ज्योतिष के अनुसार राहु और केतु इस दिशा के स्वामी हैं। इस क्षेत्र का मुख्य तत्व पृथ्वी है। पृथ्वी तत्व की प्रमुखता के कारण इस स्थान को ऊंचा और भारी रखना चाहिए। इस दिशा में गड्ढे, बोरिंग, कुएं इत्यादि नहीं होने चाहिए। 

8. वायव्य कोण 

उत्तर और पश्चिम दिशा के मध्य के कोणीय स्थान को वायव्य दिशा का नाम दिया गया है। इस दिशा का मुख्य तत्व वायु है। इस स्थान का प्रभाव पड़ोसियों, मित्रों और संबंधियों से अच्छे या बुरे संबंधों का कारण बनता है। इसलिए वास्तु के सहयोग से इस दिशा को हमेशा अनुकूल रखें। घर में बरकत आएगी। 

ब्रह्मस्थान 

इन चारों कोणों के अलावा पांचवा स्थान ब्रह्मस्थान है, जो चारों कोणों और चारों दिशाओं के मध्य में होता है। 

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अस्वीकरण – इस लेख में दी गई जानकारी सामान्य मान्यताओं पर आधारित है। Mandnam.com इसकी पुष्टि नहीं करता है। इसका इस्तेमाल करने से पहले, कृपया संबंधित विशेषज्ञ से सलाह अवश्य लें।

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